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बहिनश्रीके वचनामृत
भावना मुनिराजको वर्तती है । आत्माके आश्रयसे
एकाग्रता करते-करते वे केवलज्ञानके समीप जा रहे
हैं । प्रचुर शान्तिका वेदन होता है । कषाय बहुत
मन्द हो गये हैं । कदाचित् कुछ ऋद्धियाँ — चमत्कार
भी प्रगट होते जाते हैं; परन्तु उनका उनके प्रति दुर्लक्ष
है । ‘हमें ये चमत्कार नहीं चाहिये । हमें तो पूर्ण
चैतन्यचमत्कार चाहिये । उसके साधनरूप, ऐसा
ध्यान — ऐसी निर्विकल्पता — ऐसी समाधि चाहिये कि
जिसके परिणामसे असंख्य प्रदेशोंमें प्रत्येक गुण उसकी
परिपूर्ण पर्यायसे प्रगट हो, चैतन्यका पूर्ण विलास
प्रगट हो ।’ इस भावनाको मुनिराज आत्मामें अत्यन्त
लीनता द्वारा सफल करते हैं ।।३९०।।
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अज्ञानीने अनादि कालसे अनंत ज्ञान-आनन्दादि
समृद्धिसे भरे हुए निज चैतन्यमहलको ताले लगा
दिये हैं और स्वयं बाहर भटकता रहता है । ज्ञान
बाहरसे ढूँढ़ता है, आनन्द बाहरसे ढूँढ़ता है, सब
कुछ बाहरसे ढूँढ़ता है । स्वयं भगवान होने पर भी
भीख माँगता रहता है ।