बहिनश्रीके वचनामृत
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ज्ञानीने चैतन्यमहलके ताले खोल दिये हैं ।
अंतरमें ज्ञान-आनन्दादिकी अखूट समृद्धि देखकर,
और थोड़ी भोगकर, पहले कभी जिसका अनुभव
नहीं हुआ था ऐसी विश्रान्ति उसे हो गई है ।।३९१।।
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एक चैतन्यतत्त्व ही उत्कृष्ट आश्चर्यकारी है ।
विश्वमें ऐसी कोई विभूति नहीं है कि जो
चैतन्यतत्त्वसे ऊँची हो । वह चैतन्य तो तेरे पास ही
है, तू ही वह है । तो फि र शरीर पर उपसर्ग आने
पर या शरीर छूटनेके प्रसंगमें तू डरता क्यों है ? जो
कोई बाधा पहुँचाता है वह तो पुद्गलको पहुँचाता
है, जो छूट जाता है वह तो तेरा था ही नहीं । तेरा
तो मंगलकारी, आश्चर्यकारी तत्त्व है । तो फि र तुझे
डर किसका ? समाधिमें स्थिर होकर एक आत्माका
ध्यान कर, भय छोड़ दे ।।३९२।।
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जिसे भवभ्रमणसे सचमुच छूटना हो उसे अपनेको
परद्रव्यसे भिन्न पदार्थ निश्चित करके, अपने ध्रुव
ज्ञायकस्वभावकी महिमा लाकर, सम्यग्दर्शन प्रगट