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करनेका प्रयास करना चाहिये । यदि ध्रुव ज्ञायक- भूमिका आश्रय न हो तो जीव साधनाका बल किसके आश्रयसे प्रगट करेगा ? ज्ञायककी ध्रुव भूमिमें द्रष्टि जमने पर, उसमें एकाग्रतारूप प्रयत्न करते-करते, निर्मलता प्रगट होती जाती है ।
साधक जीवकी द्रष्टि निरंतर शुद्धात्मद्रव्य पर होती है, तथापि साधक जानता है सबको; — वह शुद्ध- अशुद्ध पर्यायोंको जानता है और उन्हें जानते हुए उनके स्वभाव-विभावपनेका, उनके सुख-दुःखरूप वेदनका, उनके साधक-बाधकपनेका इत्यादिका विवेक वर्तता है । साधकदशामें साधकके योग्य अनेक परिणाम वर्तते रहते हैं परन्तु ‘मैं परिपूर्ण हूँ’ ऐसा बल सतत साथ ही साथ रहता है । पुरुषार्थरूप क्रिया अपनी पर्यायमें होती है और साधक उसे जानता है, तथापि द्रष्टिके विषयभूत ऐसा जो निष्क्रिय द्रव्य वह अधिकका अधिक रहता है । — ऐसी साधक- परिणतिकी अटपटी रीतिको ज्ञानी बराबर समझते हैं, दूसरोंको समझना कठिन होता है ।।३९३।।