मुनिराजके हृदयमें एक आत्मा ही विराजता है । उनका सर्व प्रवर्तन आत्मामय ही है । आत्माके आश्रयसे बड़ी निर्भयता प्रगट हुई है । घोर जंगल हो, घनी झाड़ी हो, सिंह-व्याघ्र दहाड़ते हों, मेघाच्छन्न डरावनी रात हो, चारों ओर अंधकार व्याप्त हो, वहाँ गिरिगुफामें मुनिराज बस अकेले चैतन्यमें ही मस्त होकर निवास करते हैं । आत्मामेंसे बाहर आयें तो श्रुतादिके चिंतवनमें चित्त लगता है और फि र अंतरमें चले जाते हैं । स्वरूपके झूलेमें झूलते हैं । मुनिराजको एक आत्मलीनताका ही काम है । अद्भुत दशा है ।।३९४।।
चेतनका चैतन्यस्वरूप पहिचानकर उसका अनुभव करने पर विभावका रस टूट जाता है । इसलिये चैतन्यस्वरूपकी भूमि पर खड़ा रहकर तू विभावको तोड़ सकेगा । विभावको तोड़नेका यही उपाय है । विभावमें खड़े-खड़े विभाव नहीं टूटेगा; मन्द होगा, और उससे देवादिकी गति मिलेगी, परन्तु चार गतिका अभाव नहीं होगा ।।३९५।।