१७४
तीन लोकको जाननेवाला तेरा तत्त्व है उसकी महिमा तुझे क्यों नहीं आती ? आत्मा स्वयं ही सर्वस्व है, अपनेमें ही सब भरा है । आत्मा सारे विश्वका ज्ञाता-द्रष्टा एवं अनन्त शक्ति का धारक है । उसमें क्या कम है ? सर्व ऋद्धि उसीमें है । तो फि र बाह्य ऋद्धिका क्या काम है ? जिसे बाह्य पदार्थोंमें कौतूहल है उसे अंतरकी रुचि नहीं है । अंतरकी रुचिके बिना अंतरमें नहीं पहुँचा जाता, सुख प्रगट नहीं होता ।।३९६।।
चैतन्य मेरा देव है; उसीको मैं देखता हूँ । दूसरा कुछ मुझे दिखता ही नहीं है न ! — ऐसा द्रव्य पर जोर आये, द्रव्यकी ही अधिकता रहे, तो सब निर्मल होता जाता है । स्वयं अपनेमें गया, एकत्वबुद्धि टूट गई, वहाँ सब रस ढीले हो गये । स्वरूपका रस प्रगट होने पर अन्य रसमें अनन्त फीकापन आ गया । न्यारा, सबसे न्यारा हो जानेसे संसारका रस घटकर अनन्तवाँ भाग रह गया । सारी दशा पलट गई ।।३९७।।
मैंने अपने परमभावको ग्रहण किया उस परम-