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बहिनश्रीके वचनामृत
तीन लोकको जाननेवाला तेरा तत्त्व है उसकी
महिमा तुझे क्यों नहीं आती ? आत्मा स्वयं ही सर्वस्व
है, अपनेमें ही सब भरा है । आत्मा सारे विश्वका
ज्ञाता-द्रष्टा एवं अनन्त शक्ति का धारक है । उसमें क्या
कम है ? सर्व ऋद्धि उसीमें है । तो फि र बाह्य ऋद्धिका
क्या काम है ? जिसे बाह्य पदार्थोंमें कौतूहल है उसे
अंतरकी रुचि नहीं है । अंतरकी रुचिके बिना अंतरमें
नहीं पहुँचा जाता, सुख प्रगट नहीं होता ।।३९६।।
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चैतन्य मेरा देव है; उसीको मैं देखता हूँ । दूसरा
कुछ मुझे दिखता ही नहीं है न ! — ऐसा द्रव्य पर जोर
आये, द्रव्यकी ही अधिकता रहे, तो सब निर्मल होता
जाता है । स्वयं अपनेमें गया, एकत्वबुद्धि टूट गई,
वहाँ सब रस ढीले हो गये । स्वरूपका रस प्रगट होने
पर अन्य रसमें अनन्त फीकापन आ गया । न्यारा,
सबसे न्यारा हो जानेसे संसारका रस घटकर अनन्तवाँ
भाग रह गया । सारी दशा पलट गई ।।३९७।।
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मैंने अपने परमभावको ग्रहण किया उस परम-