बहिनश्रीके वचनामृत
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भावके सामने तीन लोकका वैभव तुच्छ है । और तो
क्या परन्तु मेरी स्वाभाविक पर्याय — निर्मल पर्याय
प्रगट हुई वह भी, मैं द्रव्यद्रष्टिके बलसे कहता हूँ कि,
मेरी नहीं है । मेरा द्रव्यस्वभाव अगाध है, अमाप
है । निर्मल पर्यायका वेदन भले हो परन्तु द्रव्य-
स्वभावके आगे उसकी विशेषता नहीं है । — ऐसी
द्रव्यद्रष्टि कब प्रगट होती है कि जब चैतन्यकी महिमा
लाकर, सबसे विमुख होकर, जीव अपनी ओर झुके
तब ।।३९८।।
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सम्यग्द्रष्टिको भले स्वानुभूति स्वयं पूर्ण नहीं है
परन्तु द्रष्टिमें परिपूर्ण ध्रुव आत्मा है । ज्ञानपरिणति
द्रव्य तथा पर्यायको जानती है परन्तु पर्याय पर जोर
नहीं है । द्रष्टिमें अकेला स्वकी ओरका — द्रव्यकी
ओरका बल रहता है ।।३९९।।
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मैं तो शाश्वत पूर्ण चैतन्य जो हूँ सो हूँ । मुझमें
जो गुण हैं वे ज्योंके त्यों हैं, जैसेके तैसे ही हैं ।
मैं एकेन्द्रियके भवमें गया वहाँ मुझमें कुछ कम नहीं