Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 399-400.

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बहिनश्रीके वचनामृत
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भावके सामने तीन लोकका वैभव तुच्छ है । और तो
क्या परन्तु मेरी स्वाभाविक पर्यायनिर्मल पर्याय
प्रगट हुई वह भी, मैं द्रव्यद्रष्टिके बलसे कहता हूँ कि,
मेरी नहीं है । मेरा द्रव्यस्वभाव अगाध है, अमाप
है । निर्मल पर्यायका वेदन भले हो परन्तु द्रव्य-
स्वभावके आगे उसकी विशेषता नहीं है ।ऐसी
द्रव्यद्रष्टि कब प्रगट होती है कि जब चैतन्यकी महिमा
लाकर, सबसे विमुख होकर, जीव अपनी ओर झुके
तब ।।३९८।।
सम्यग्द्रष्टिको भले स्वानुभूति स्वयं पूर्ण नहीं है
परन्तु द्रष्टिमें परिपूर्ण ध्रुव आत्मा है । ज्ञानपरिणति
द्रव्य तथा पर्यायको जानती है परन्तु पर्याय पर जोर
नहीं है । द्रष्टिमें अकेला स्वकी ओरकाद्रव्यकी
ओरका बल रहता है ।।३९९।।
मैं तो शाश्वत पूर्ण चैतन्य जो हूँ सो हूँ । मुझमें
जो गुण हैं वे ज्योंके त्यों हैं, जैसेके तैसे ही हैं ।
मैं एकेन्द्रियके भवमें गया वहाँ मुझमें कुछ कम नहीं