१७६
बहिनश्रीके वचनामृत
हो गया है और देवके भवमें गया वहाँ मेरा कोई
गुण बढ़ नहीं गया है । — ऐसी द्रव्यद्रष्टि ही एक
उपादेय है । जानना सब, किन्तु द्रष्टि रखना एक
द्रव्य पर ।।४००।।
✽
ज्ञानीका परिणमन विभावसे विमुख होकर
स्वरूपकी ओर ढल रहा है । ज्ञानी निज स्वरूपमें
परिपूर्णरूपसे स्थिर हो जानेको तरसता है । ‘यह
विभावभाव हमारा देश नहीं है । इस परदेशमें हम
कहाँ आ पहुँचे ? हमें यहाँ अच्छा नहीं लगता ।
यहाँ हमारा कोई नहीं है । जहाँ ज्ञान, श्रद्धा,
चारित्र, आनन्द, वीर्यादि अनंतगुणरूप हमारा परिवार
बसता है वह हमारा स्वदेश है । अब हम उस
स्वरूपस्वदेशकी ओर जा रहे हैं । हमें त्वरासे अपने
मूल वतनमें जाकर आरामसे बसना है जहाँ सब
हमारे हैं ।’ ।।४०१।।
✽
जो केवलज्ञान प्राप्त कराये ऐसा अन्तिम
पराकाष्ठाका ध्यान वह उत्तम प्रतिक्रमण है । इन महा