बहिनश्रीके वचनामृत
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मुनिराजने ऐसा प्रतिक्रमण किया कि दोष पुनः कभी
उत्पन्न ही नहीं हुए; ठेठ श्रेणी लगा दी कि जिसके
परिणामसे वीतरागता होकर केवलज्ञानका सारा समुद्र
उछल पड़ा ! अन्तर्मुखता तो अनेक बार हुई थी, परन्तु
यह अन्तर्मुखता तो अन्तिमसे अन्तिम कोटिकी !
आत्माके साथ पर्याय ऐसी जुड़ गई कि उपयोग अंदर
गया सो गया, फि र कभी बाहर आया ही नहीं ।
चैतन्यपदार्थको जैसा ज्ञानमें जाना था, वैसा ही
उसको पर्यायमें प्रसिद्ध कर लिया ।।४०२।।
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जैसे पूर्णमासीके पूर्ण चन्द्रके योगसे समुद्रमें
ज्वार आता है, उसी प्रकार मुनिराजको पूर्ण
चैतन्यचन्द्रके एकाग्र अवलोकनसे आत्मसमुद्रमें ज्वार
आता है; — वैराग्यका ज्वार आता है, आनन्दका
ज्वार आता है, सर्व गुण-पर्यायका यथासम्भव ज्वार
आता है । यह ज्वार बाहरसे नहीं, भीतरसे आता
है । पूर्ण चैतन्यचन्द्रको स्थिरतापूर्वक निहारने पर
अंदरसे चेतना उछलती है, चारित्र उछलता है, सुख
उछलता है, वीर्य उछलता है — सब कुछ उछलता