१७८
बहिनश्रीके वचनामृत
है । धन्य मुनिदशा ! ४०३।।
✽
परसे भिन्न ज्ञायकस्वभावका निर्णय करके,
बारम्बार भेदज्ञानका अभ्यास करते-करते मतिश्रुतके
विकल्प टूट जाते हैं, उपयोग गहराईमें चला जाता है
और भोंयरेमें भगवानके दर्शन प्राप्त हों तदनुसार
गहराईमें आत्मभगवान दर्शन देते हैं । इस प्रकार
स्वानुभूतिकी कला हाथमें आने पर, किस प्रकार
पूर्णता प्राप्त हो वह सब कला हाथमें आ जाती है,
केवलज्ञानके साथ केलि प्रारम्भ होती है ।।४०४।।
✽
अज्ञानी जीव ऐसे भावसे वैराग्य करता है कि —
‘यह सब क्षणिक है, सांसारिक उपाधि दुःखरूप है’,
परन्तु उसे ‘मेरा आत्मा ही आनन्दस्वरूप है’ ऐसे
अनुभवपूर्वक सहज वैराग्य नहीं होनेके कारण सहज
शान्ति परिणमित नहीं होती । वह घोर तप करता है,
परन्तु कषायके साथ एकत्वबुद्धि नहीं टूटी होनेसे
आत्मप्रतपन प्रगट नहीं होता ।।४०५।।
✽