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है । धन्य मुनिदशा ! ४०३।।
परसे भिन्न ज्ञायकस्वभावका निर्णय करके, बारम्बार भेदज्ञानका अभ्यास करते-करते मतिश्रुतके विकल्प टूट जाते हैं, उपयोग गहराईमें चला जाता है और भोंयरेमें भगवानके दर्शन प्राप्त हों तदनुसार गहराईमें आत्मभगवान दर्शन देते हैं । इस प्रकार स्वानुभूतिकी कला हाथमें आने पर, किस प्रकार पूर्णता प्राप्त हो वह सब कला हाथमें आ जाती है, केवलज्ञानके साथ केलि प्रारम्भ होती है ।।४०४।।
अज्ञानी जीव ऐसे भावसे वैराग्य करता है कि — ‘यह सब क्षणिक है, सांसारिक उपाधि दुःखरूप है’, परन्तु उसे ‘मेरा आत्मा ही आनन्दस्वरूप है’ ऐसे अनुभवपूर्वक सहज वैराग्य नहीं होनेके कारण सहज शान्ति परिणमित नहीं होती । वह घोर तप करता है, परन्तु कषायके साथ एकत्वबुद्धि नहीं टूटी होनेसे आत्मप्रतपन प्रगट नहीं होता ।।४०५।।