Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 406-407.

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बहिनश्रीके वचनामृत
१७९
तू अनादि-अनंत पदार्थ है । ‘जानना’ तेरा स्वभाव
है । शरीरादि जड़ पदार्थ कुछ जानते नहीं है ।
जाननेवाला कभी नहिं-जाननेवाला नहीं होता; नहिं-
जाननेवाला कभी जाननेवाला नहीं होता; सदा सर्वदा
भिन्न रहते हैं । जड़के साथ एकत्व मानकर तू दुःखी
हो रहा है । वह एकत्वकी मान्यता भी तेरे मूल
स्वरूपमें नहीं है ।शुभाशुभ भाव भी तेरा असली
स्वरूप नहीं है ।यह, ज्ञानी अनुभवी पुरुषोंका
निर्णय है । तू इस निर्णयकी दिशामें प्रयत्न कर ।
मति व्यवस्थित किये बिना चाहे जैसे तर्क ही उठाता
रहेगा तो पार नहीं आयगा ।।४०६।।
यहाँ (श्री प्रवचनसार प्रारम्भ करते हुए) कुन्द-
कुन्दाचार्यभगवानको पंच परमेष्ठीके प्रति कैसी भक्ति
उल्लसित हुई है ! पांचों परमेष्ठीभगवंतोंका स्मरण
करके भक्ति भावपूर्वक कैसा नमस्कार किया है ! तीनों
कालके तीर्थंकरभगवन्तोंकोसाथ ही साथ मनुष्य-
क्षेत्रमें वर्तते विद्यमान तीर्थंकरभगवन्तोंको अलग
स्मरण करके‘सबको एकसाथ तथा प्रत्येक-