तू अनादि-अनंत पदार्थ है । ‘जानना’ तेरा स्वभाव है । शरीरादि जड़ पदार्थ कुछ जानते नहीं है । जाननेवाला कभी नहिं-जाननेवाला नहीं होता; नहिं- जाननेवाला कभी जाननेवाला नहीं होता; सदा सर्वदा भिन्न रहते हैं । जड़के साथ एकत्व मानकर तू दुःखी हो रहा है । वह एकत्वकी मान्यता भी तेरे मूल स्वरूपमें नहीं है ।शुभाशुभ भाव भी तेरा असली स्वरूप नहीं है । — यह, ज्ञानी अनुभवी पुरुषोंका निर्णय है । तू इस निर्णयकी दिशामें प्रयत्न कर । मति व्यवस्थित किये बिना चाहे जैसे तर्क ही उठाता रहेगा तो पार नहीं आयगा ।।४०६।।
यहाँ (श्री प्रवचनसार प्रारम्भ करते हुए) कुन्द- कुन्दाचार्यभगवानको पंच परमेष्ठीके प्रति कैसी भक्ति उल्लसित हुई है ! पांचों परमेष्ठीभगवंतोंका स्मरण करके भक्ति भावपूर्वक कैसा नमस्कार किया है ! तीनों कालके तीर्थंकरभगवन्तोंको — साथ ही साथ मनुष्य- क्षेत्रमें वर्तते विद्यमान तीर्थंकरभगवन्तोंको अलग स्मरण करके — ‘सबको एकसाथ तथा प्रत्येक-