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बहिनश्रीके वचनामृत
प्रत्येकको मैं वंदन करता हूँ’ ऐसा कहकर अति,
भक्ति भीने चित्तसे आचार्यभगवान नम गये हैं । ऐसे
भक्ति के भाव मुनिको — साधकको — आये बिना नहीं
रहते । चित्तमें भगवानके प्रति भक्ति भाव उछले तब,
मुनि आदि साधकको भगवानका नाम आने पर भी
रोमरोम उल्लसित हो जाता है । ऐसे भक्ति आदिके
शुभ भाव आयें तब भी मुनिराजको ध्रुव ज्ञायकतत्त्व
ही मुख्य रहता है इसलिये शुद्धात्माश्रित उग्र
समाधिरूप परिणमन वर्तता ही रहता है और शुभ
भाव तो ऊपर-ऊपर ही तरते हैं तथा स्वभावसे
विपरीतरूप वेदनमें आते हैं ।।४०७।।
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अहो ! सिद्धभगवानकी अनन्त शान्ति ! अहो !
उनका अपरिमित आनन्द ! साधकके अल्प निवृत्त
परिणाममें भी अपूर्व शीतलता लगती है तो जो सर्व
विभावपरिणामसे सर्वथा निवृत्त हुए हैं ऐसे
सिद्धभगवानको प्रगट हुई शान्तिका तो क्या कहना !
उनके तो मानों शान्तिका सागर उछल रहा हो ऐसी
अमाप शान्ति होती है; मानों आनन्दका समुद्र हिलोरें