Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 408.

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बहिनश्रीके वचनामृत

प्रत्येकको मैं वंदन करता हूँ’ ऐसा कहकर अति, भक्ति भीने चित्तसे आचार्यभगवान नम गये हैं । ऐसे भक्ति के भाव मुनिकोसाधककोआये बिना नहीं रहते । चित्तमें भगवानके प्रति भक्ति भाव उछले तब, मुनि आदि साधकको भगवानका नाम आने पर भी रोमरोम उल्लसित हो जाता है । ऐसे भक्ति आदिके शुभ भाव आयें तब भी मुनिराजको ध्रुव ज्ञायकतत्त्व ही मुख्य रहता है इसलिये शुद्धात्माश्रित उग्र समाधिरूप परिणमन वर्तता ही रहता है और शुभ भाव तो ऊपर-ऊपर ही तरते हैं तथा स्वभावसे विपरीतरूप वेदनमें आते हैं ।।४०७।।

अहो ! सिद्धभगवानकी अनन्त शान्ति ! अहो ! उनका अपरिमित आनन्द ! साधकके अल्प निवृत्त परिणाममें भी अपूर्व शीतलता लगती है तो जो सर्व विभावपरिणामसे सर्वथा निवृत्त हुए हैं ऐसे सिद्धभगवानको प्रगट हुई शान्तिका तो क्या कहना ! उनके तो मानों शान्तिका सागर उछल रहा हो ऐसी अमाप शान्ति होती है; मानों आनन्दका समुद्र हिलोरें