बहिनश्रीके वचनामृत
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ले रहा हो ऐसा अपार आनन्द होता है । तेरे
आत्मामें भी ऐसा सुख भरा है परन्तु विभ्रमकी चादर
आड़ी आ जानेसे तुझे वह दिखता नहीं है ।।४०८।।
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जिस प्रकार वटवृक्षकी जटा पकड़कर लटकता
हुआ मनुष्य मधुबिन्दुकी तीव्र लालसामें पड़कर,
विद्याधरकी सहायताकी उपेक्षा करके विमानमें नहीं
बैठा, उसी प्रकार अज्ञानी जीव विषयोंके कल्पित
सुखकी तीव्र लालसामें पड़कर गुरुके उपदेशकी
उपेक्षा करके शुद्धात्मरुचि नहीं करता, अथवा ‘इतना
काम कर लूँ, इतना काम कर लूँ’ इस प्रकार
प्रवृत्तिके रसमें लीन रहकर शुद्धात्मप्रतीतिके उद्यमका
समय नहीं पाता, इतनेमें तो मृत्युका समय आ
पहुँचता है । फि र ‘मैंने कुछ किया नहीं, अरेरे !
मनुष्यभव व्यर्थ गया’ इस प्रकार वह पछताये तथापि
किस कामका ? मृत्युके समय उसे किसकी शरण
है ? वह रोगकी, वेदनाकी, मृत्युकी, एकत्वबुद्धिकी
और आर्तध्यानकी चपेटमें आकर देह छोड़ता है ।
मनुष्यभव हारकर चला जाता है ।