बहिनश्रीके वचनामृत
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बाह्य मुनिपना ग्रहण किया हो, भले ही वह दुर्धर
तप करता हो और उपसर्ग-परिषहमें अडिग रहता
हो, तथापि उसे वह सब निर्वाणका कारण नहीं
होता, स्वर्गका कारण होता है; क्योंकि उसे शुद्ध
परिणमन बिलकुल नहीं वर्तता, मात्र शुभ परिणाम
ही — और वह भी उपादेयबुद्धिसे — वर्तता है । वह
भले नौ पूर्व पढ़ गया हो तथापि उसने आत्माका
मूल द्रव्यसामान्यस्वरूप अनुभवपूर्वक नहीं जाना
होनेसे वह सब अज्ञान है ।
सच्चे भावमुनिको तो शुद्धात्मद्रव्याश्रित मुनियोग्य
उग्र शुद्धपरिणति चलती रहती है, कर्तापना तो
सम्यग्दर्शन होने पर ही छूट गया होता है, उग्र
ज्ञातृत्वधारा अटूट वर्तती रहती है, परम समाधि
परिणमित होती है । वे शीघ्र-शीघ्र निजात्मामें लीन
होकर आनन्दका वेदन करते रहते हैं; उनके प्रचुर
स्वसंवेदन होता है । वह दशा अद्भुत है, जगतसे
न्यारी है । पूर्ण वीतरागता न होनेसे उनके व्रत-तप-
शास्त्ररचना आदिके शुभ भाव आते हैं अवश्य,
परन्तु वे हेयबुद्धिसे आते हैं । ऐसी पवित्र मुनिदशा