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मुक्ति का कारण है ।।४१०।।
अनन्त कालसे जीव भ्रान्तिके कारण परके कार्य करनेका मिथ्या श्रम करता है, परन्तु परपदार्थके कार्य वह बिलकुल नहीं कर सकता । प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र- रूपसे परिणमित होता है । जीवके कर्ता-क्रिया-कर्म जीवमें हैं, पुद्गलके पुद्गलमें हैं । वर्ण-गंध-रस- स्पर्शादिरूपसे पुद्गल परिणमित होता है, जीव उन्हें नहीं बदल सकता । चेतनके भावरूपसे चेतन परिणमित होता है, जड़ पदार्थ उसमें कुछ नहीं कर सकते ।
तू ज्ञायकस्वभावी है । पौद्गलिक शरीर-वाणी- मनसे तो तू भिन्न ही है, परन्तु शुभाशुभ भाव भी तेरा स्वभाव नहीं है । अज्ञानके कारण तूने परमें तथा विभावमें एकत्वबुद्धि की है, वह एकत्वबुद्धि छोड़कर तू ज्ञाता हो जा । शुद्ध आत्मद्रव्यकी यथार्थ प्रतीति करके — शुद्ध द्रव्यद्रष्टि प्रगट करके, तू ज्ञायकपरिणति प्रगट कर कि जिससे मुक्ति का प्रयाण प्रारम्भ होगा ।।४११।।