बहिनश्रीके वचनामृत
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मरण तो आना ही है जब सब कुछ छूट
जायगा । बाहरकी एक वस्तु छोड़नेमें तुझे दुःख होता
है, तो बाहरके समस्त द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव एकसाथ
छूटने पर तुझे कितना दुःख होगा ? मरणकी वेदना
भी कितनी होगी ? ‘कोई मुझे बचाओ’ ऐसा तेरा
हृदय पुकारता होगा । परन्तु क्या कोई तुझे बचा
सकेगा ? तू भले ही धनके ढेर लगा दे, वैद्य-डाक्टर
भले सर्व प्रयत्न कर छूटें, आसपास खड़े हुए अनेक
सगे-सम्बन्धियोंकी ओर तू भले ही दीनतासे टुकुर-
टुकुर देखता रहे, तथापि क्या कोई तुझे शरणभूत हो
ऐसा है ? यदि तूने शाश्वत स्वयंरक्षित ज्ञानानन्दस्वरूप
आत्माकी प्रतीति-अनुभूति करके आत्म-आराधना की
होगी, आत्मामेंसे शान्ति प्रगट की होगी, तो वह एक
ही तुझे शरण देगी । इसलिये अभीसे वह प्रयत्न
कर । ‘सिर पर मौत मंडरा रहा है’ ऐसा बारम्बार
स्मरणमें लाकर भी तू पुरुषार्थ चला कि जिससे ‘अब
हम अमर भये, न मरेंगे’ ऐसे भावमें तू समाधिपूर्वक
देहत्याग कर सके । जीवनमें एक शुद्ध आत्मा ही
उपादेय है ।।४१२।।
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