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बहिनश्रीके वचनामृत
सर्वज्ञभगवान परिपूर्णज्ञानरूपसे परिणमित हो
गये हैं । वे अपनेको पूर्णरूपसे — अपने सर्वगुणोंके
भूत-वर्तमान-भावी पर्यायोंके अविभाग प्रतिच्छेदों
सहित — प्रत्यक्ष जानते हैं । साथ ही साथ वे
स्वक्षेत्रमें रहकर, परके समीप गये बिना, परसन्मुख
हुए बिना, निराले रहकर लोकालोकके सर्व
पदार्थोंको अतीन्द्रियरूपसे प्रत्यक्ष जानते हैं । परको
जाननेके लिये वे परसन्मुख नहीं होते । परसन्मुख
होनेसे तो ज्ञान दब जाता है — रुक जाता है,
विकसित नहीं होता । जो ज्ञान पूर्णरूपसे परिणमित
हो गया है वह किसीको जाने बिना नहीं रहता ।
वह ज्ञान स्वचैतन्यक्षेत्रमें रहते हुए, तीनों कालके
तथा लोकालोकके सर्व स्व-पर ज्ञेयों मानों वे ज्ञानमें
उत्कीर्ण हो गये हों उस प्रकार, समस्त स्व-परको
एक समयमें सहजरूपसे प्रत्यक्ष जानता है; जो बीत
गया है उस सबको भी पूरा जानता है, जो आगे
होना है उस सबको भी पूरा जानता है । ज्ञानशक्ति
अद्भुत है ।।४१३।।
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कोई स्वयं चक्रवर्ती राजा होने पर भी, अपने