बहिनश्रीके वचनामृत
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हों, परन्तु जिसे चैतन्य — आत्मा प्रकाशित हुआ उसे सब
चैतन्यमय ही भासित होता है ।।१०।।
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मुमुक्षुओं तथा ज्ञानियोंको अपवादमार्गका या
उत्सर्गमार्गका आग्रह नहीं होता, परन्तु जिससे अपने
परिणाममें आगे बढ़ा जा सके उस मार्गको ग्रहण
करते हैं । किन्तु यदि एकान्त उत्सर्ग या एकान्त
अपवादकी हठ करे तो उसे वस्तुके यथार्थ स्वरूपकी
ही खबर नहीं है ।।११।।
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जिसे द्रव्यद्रष्टि प्रगट हुई उसकी द्रष्टि अब
चैतन्यके तल पर ही लगी है । उसमें परिणति
एकमेक हो गई है । चैतन्य-तलमें ही सहज द्रष्टि
है। स्वानुभूतिके कालमें या बाहर उपयोग हो तब
भी तल परसे द्रष्टि नहीं हटती, द्रष्टि बाहर जाती ही
नहीं । ज्ञानी चैतन्यके पातालमें पहुँच गये हैं;
गहरी-गहरी गुफामें, बहुत गहराई तक पहुँच गये हैं;
साधनाकी सहज दशा साधी हुई है ।।१२।।
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