‘मैं ज्ञायक और यह पर’, बाकी सब जाननेके
प्रकार हैं । ‘मैं ज्ञायक हूँ, बाकी सब पर’ — ऐसी एक
धारा प्रवाहित हो तो उसमें सब आ जाता है, परन्तु
स्वयं गहरा उतरता ही नहीं, करनेकी ठानता ही नहीं,
इसलिये कठिन लगता है ।।१३।।
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‘मैं हूँ’ इस प्रकार स्वयंसे अपने अस्तित्वका
जोर आता है, स्वयं अपनेको पहिचानता है । पहले
ऊपर-ऊपरसे अस्तित्वका जोर आता है, फि र
अस्तित्वका गहराईसे जोर आता है; वह विकल्परूप
होता है परन्तु भावना जोरदार होनेसे सहजरूपसे
जोर आता है । भावनाकी उग्रता हो तो सच्चा
आनेका अवकाश है ।।१४।।
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तीर्थंकरदेवकी दिव्यध्वनि जो कि जड़ है उसे
भी कैसी उपमा दी है ! अमृतवाणीकी मिठास
देखकर द्राक्षें शरमाकर वनवासमें चली गईं और
इक्षु अभिमान छोड़कर कोल्हूमें पिल गया ! ऐसी
तो जिनेन्द्रवाणीकी महिमा गायी है; फि र
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बहिनश्रीके वचनामृत