Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 416.

< Previous Page   Next Page >


Page 188 of 212
PDF/HTML Page 203 of 227

 

१८८

बहिनश्रीके वचनामृत

है । उस घटमेंसे पतली धारसे अल्प अमृत पिया जाय ऐसे स्वसंवेदनसे हमें सन्तोष नहीं होता । हमें तो प्रतिसमय पूर्ण अमृतका पान हो ऐसी पूर्ण दशा चाहिये । उस पूर्ण दशामें सादि-अनन्त काल पर्यन्त प्रतिसमय पूरा अमृत पिया जाता है और घट भी सदा परिपूर्ण भरा रहता है । चमत्कारिक पूर्ण शक्ति वान शाश्वत द्रव्य और प्रतिसमय ऐसी ही पूर्ण व्यक्ति वाला परिणमन ! ऐसी उत्कृष्ट-निर्मल दशाकी हम भावना भाते हैं । (ऐसी भावनाके समय भी मुनिराजकी द्रष्टि तो सदाशुद्ध आत्मद्रव्य पर ही है ।) ।।४१५।।

भवभ्रमण चलता रहे ऐसे भावमें यह भव व्यतीत होने देना योग्य नहीं है । भवके अभावका प्रयत्न करनेके लिये यह भव है । भवभ्रमण कितने दुःखोंसे भरा है उसका गंभीरतासे विचार तो कर ! नरकके भयंकर दुःखोंमें एक क्षण निकलना भी असह्य लगता है वहाँ सागरोपम कालकी आयु कैसे कटी होगी ? नरकके दुःख सुने जाएँ ऐसे नहीं हैं । पैरमें काँटा लगने जितना दुःख भी तुझसे सहा नहीं जाता, तो फि र जिसके गर्भमें उससे अनन्तानन्तगुने