Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 417.

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बहिनश्रीके वचनामृत
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दुःख पड़े हैं ऐसे मिथ्यात्वको छोड़नेका उद्यम तू
क्यों नहीं करता ? गफलतमें क्यों रहता है ? ऐसा
उत्तम योग पुनः कब मिलेगा ? तू मिथ्यात्व
छोड़नेके लिये जी-जानसे प्रयत्न कर, अर्थात् साता-
असातासे भिन्न तथा आकुलतामय शुभाशुभ भावोंसे
भी भिन्न ऐसे निराकुल ज्ञायकस्वभावको अनुभवनेका
प्रबल पुरुषार्थ कर । यही इस भवमें करने योग्य
है ।।४१६।।
सम्यग्दर्शन होनेके पश्चात् आत्मस्थिरता बढ़ते-
बढ़ते, बारम्बार स्वरूपलीनता होती रहे ऐसी दशा हो
तब मुनिपना आता है । मुनिको स्वरूपकी ओर
ढलती हुई शुद्धि इतनी बढ़ गई होती है कि वे
घड़ी-घड़ी आत्मामें प्रविष्ट हो जाते हैं । पूर्ण
वीतरागताके अभावके कारण जब बाहर आते हैं तब
विकल्प तो उठते हैं परन्तु वे गृहस्थदशाके योग्य
नहीं होते, मात्र स्वाध्याय-ध्यान-व्रत-संयम-तप-भक्ति
इत्यादिसम्बन्धी मुनियोग्य शुभ विकल्प ही होते हैं
और वे भी हठ रहित होते हैं । मुनिराजको
बाहरका कुछ नहीं चाहिये । बाह्यमें एक शरीर-