Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 418.

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बहिनश्रीके वचनामृत

मात्रका सम्बन्ध है, उसके प्रति भी परम उपेक्षा है । बड़ी निःस्पृह दशा है । आत्माकी ही लगन लगी है । चैतन्यनगरमें ही निवास है । ‘मैं और मेरे आत्माके अनंत गुण ही मेरे चैतन्यनगरकी बस्ती है । उसीका मुझे काम है । दूसरोंका मुझे क्या काम ?, इस प्रकार एक आत्माकी ही धुन है । विश्वकी कथासे उदास हैं । बस, एक आत्मामय ही जीवन हो गया है;मानों चलते-फि रते सिद्ध ! जैसे पिताकी झलक पुत्रमें दिखायी देती है उसी प्रकार जिनभगवानकी झलक मुनिराजमें दिखती है । मुनि छठवें-सातवें गुणस्थानमें रहें उतना काल कहीं (आत्मशुद्धिकी दशामें आगे बढ़े बिना) वहींके वहीं खड़े नहीं रहते, आगे बढ़ते जाते हैं; केवलज्ञान न हो तब तक शुद्धि बढ़ाते ही जाते हैं ।यह, मुनिकी अंतःसाधना है । जगतके जीव मुनिकी अंतरंग साधना नहीं देखते । साधना कहीं बाहरसे देखनेकी वस्तु नहीं है, अंतरकी दशा है । मुनिदशा आश्चर्यकारी है, वंद्य है ।।४१७।।

सिद्धभगवानको अव्याबाध अनंत सुख प्रगट