हुआ सो हुआ । उसका कभी नाश नहीं होता । जिनके दुःखके बीज ही जल गये हैं वे कभी सुख छोड़कर दुःखमें कहाँसे आयेंगे ? एक बार जो क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त करके भिन्नरूप परिणमित होते हैं वे भी कभी अभिन्नरूप — एकरूप नहीं होते, तब फि र जो सिद्धरूपसे परिणमित हुए वे असिद्धरूपसे कहाँसे परिणमित होंगे ? सिद्धत्व- परिणमन प्रवाहरूपसे सादि-अनन्त है । सिद्धभगवान सादि-अनन्त काल प्रतिसमय पूर्णरूपसे परिणमित होते रहते हैं । यद्यपि सिद्धभगवानके ज्ञान-आनन्दादि सर्व गुणरत्नोंमें चमक उठती ही रहती है — उत्पादव्यय होते ही रहते हैं, तथापि वे सर्व गुण परिणमनमें भी सदा ज्योंके त्यों ही परिपूर्ण रहते हैं । स्वभाव अद्भुत है ।।४१८।।
प्रश्न : — हम अनन्त कालके दुखियारे; हमारा यह दुःख कैसे मिटेगा ?
उत्तर : — ‘मैं ज्ञायक हूँ, मैं ज्ञायक हूँ, विभावसे भिन्न मैं ज्ञायक हूँ’ इस मार्ग पर जानेसे दुःख दूर