बहिनश्रीके वचनामृत
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भले ही सर्व गुणोंके नाम न आते हों, और सर्व
गुणोंकी संज्ञा भाषामें होती भी नहीं, तथापि उनका
संवेदन तो होता ही है ।
स्वानुभूतिके कालमें अनंतगुणसागर आत्मा अपने
आनन्दादि गुणोंकी चमत्कारिक स्वाभाविक पर्यायोंमें
रमण करता हुआ प्रगट होता है । वह निर्विकल्प
दशा अद्भुत है, वचनातीत है । वह दशा प्रगट
होने पर सारा जीवन पलट जाता है ।।४२३।।
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प्रश्न : — आत्मद्रव्यका बहु भाग शुद्ध रहकर मात्र
थोड़े भागमें ही अशुद्धता आयी है न ?
उत्तर : — निश्चयसे अशुद्धता द्रव्यके थोड़े भागमें
भी नहीं आयी है, वह तो ऊपर-ऊपर ही तैरती है ।
वास्तवमें यदि द्रव्यके थोड़े भी भागमें अशुद्धता आये
अर्थात् द्रव्यका थोड़ा भी भाग अशुद्ध हो जाय, तो
अशुद्धता कभी निकलेगी ही नहीं, सदाकाल रहेगी !
बद्धस्पृष्टत्व आदि भाव द्रव्यके ऊपर तैरते हैं परन्तु
उसमें सचमुच स्थान नहीं पाते । शक्ति तो शुद्ध ही