बहिनश्रीके वचनामृत
१९७
नहीं छोड़ा है, परन्तु भ्रान्तिके कारण ‘छोड़ दिया
है’ — ऐसा उसे भासित हुआ है । अनादिकालसे
द्रव्य तो शुद्धतासे भरा है, ज्ञायकस्वरूप ही है,
आनन्दस्वरूप ही है । उसमें अनंत चमत्कारिक शक्ति
भरी है । — ऐसे ज्ञायक आत्माको सबसे भिन्न —
परद्रव्यसे भिन्न, परभावोंसे भिन्न — जाननेका प्रयत्न
करना चाहिये । भेदज्ञानका अभ्यास करना
चाहिये । ज्ञायक आत्माको पहिचानना चाहिये ।
‘ज्ञायकस्वरूप हूँ’ ऐसा अभ्यास करना चाहिये,
उसकी प्रतीति करना चाहिये; प्रतीति करके उसमें
स्थिर हो जाने पर, उसमें जो अनंत चमत्कारिक
शक्ति है वह प्रगट अनुभवमें आती है ।।४२६।।
✽
प्रश्न : — मुमुक्षु जीव पहले क्या करे ?
उत्तर : – पहले द्रव्य-गुण-पर्याय — सबको पहिचाने।
चैतन्यद्रव्यके सामान्यस्वभावको पहिचानकर, उस पर
द्रष्टि करके, उसका अभ्यास करते-करते चैतन्य
उसमें स्थिर हो जाये, तो उसमें जो विभूति है वह
प्रगट होती है । चैतन्यके असली स्वभावकी लगन