प्रश्न : — प्रथम आत्मानुभव होनेसे पूर्व, अन्तिम विकल्प कैसा होता है ?
उत्तर : — अन्तिम विकल्पका कोई नियम नहीं है । भेदज्ञानपूर्वक शुद्धात्मतत्त्वकी सन्मुखताका अभ्यास करते-करते चैतन्यतत्त्वकी प्राप्ति होती है । जहाँ ज्ञायककी ओर परिणति ढल रही होती है, वहाँ कौनसा विकल्प अन्तिम होता है (अर्थात् अन्तमें अमुक ही विकल्प होता है) ऐसा ‘विकल्प’ सम्बन्धी कोई नियम नहीं है । ज्ञायकधाराकी उग्रता – तीक्ष्णता हो वहाँ ‘विकल्प कौनसा ?’ उसका सम्बन्ध नहीं है ।
भेदज्ञानकी उग्रता, उसकी लगन, उसीकी तीव्रता होती है; शब्द द्वारा वर्णन नहीं हो सकता । अभ्यास करे, गहराईमें जाय, उसके तलमें जाकर पहिचाने, तलमें जाकर स्थिर हो, तो प्राप्त होता है — ज्ञायक प्रगट होता है ।।४२९।।
प्रश्न : — निर्विकल्प दशा होने पर वेदन किसका होता है ? द्रव्यका या पर्यायका ?