परन्तु चैतन्यतत्त्व सो मैं हूँ — ऐसा बारम्बार अभ्यास
करनेसे द्रढ़ता होती है ।।१८।।
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ज्ञानीके अभिप्रायमें राग है वह जहर है, काला
साँप है । अभी आसक्ति के कारण ज्ञानी थोड़े बाहर
खड़े हैं, राग है, परन्तु अभिप्रायमें काला साँप लगता
है । ज्ञानी विभावके बीच खड़े होने पर भी विभावसे
पृथक् हैं — न्यारे हैं ।।१९।।
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मुझे कुछ नहीं चाहिये, किसी परपदार्थकी लालसा
नहीं है, आत्मा ही चाहिये — ऐसी तीव्र उत्सुकता जिसे
हो उसे मार्ग मिलता है । अंतरमें चैतन्यऋद्धि है
तत्संबंधी विकल्पमें भी वह नहीं रुकता । ऐसा निस्पृह
हो जाता है कि मुझे अपना अस्तित्व ही चाहिये ।
— ऐसी अंतरमें जानेकी तीव्र उत्सुकता जागे तो
आत्मा प्रगट हो, प्राप्त हो ।।२०।।
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चैतन्यको चैतन्यमेंसे परिणमित भावना अर्थात्
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बहिनश्रीके वचनामृत