बहिनश्रीके वचनामृत
राग-द्वेषमेंसे नहीं उदित हुई भावना — ऐसी यथार्थ भावना हो तो वह भावना फलती ही है । यदि नहीं फले तो जगतको — चौदह ब्रह्माण्डको शून्य होना पड़े अथवा तो इस द्रव्यका नाश हो जाय । परन्तु ऐसा होता ही नहीं । चैतन्यके परिणामके साथ कुदरत बँधी हुई है — ऐसा ही वस्तुका स्वभाव है । यह अनन्त तीर्थंकरोंकी कही हुई बात है ।।२१।।
गुरुदेवको मानों तीर्थंकर जैसा उदय वर्तता है । वाणीका प्रभाव ऐसा है कि हजारों जीव समझ जाते हैं । तीर्थंकरकी वाणी जैसा योग है । वाणी जोरदार है । चाहे जितनी बार सुनने पर भी अरुचि नहीं आती । स्वयं इतनी सरसतासे बोलते हैं कि जिससे सुननेवालेका रस भी जमा रहता है, रसभरपूर वाणी है ।।२२।।
ऊपर-ऊपरके वांचन-विचार आदिसे कुछ नहीं होता, हृदयसे भावना उठे तो मार्ग सरल होता है । अंत-