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बहिनश्रीके वचनामृत
स्तलमेंसे ज्ञायककी खूब महिमा आनी चाहिये ।।२३।।
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आत्मार्थीको स्वाध्याय करना चाहिये, विचार-मनन करना चाहिये; यही आत्मार्थीकी खुराक है ।।२४।।
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प्रथम भूमिकामें शास्त्रश्रवण-पठन-मनन आदि सब होता है, परन्तु अंतरमें उस शुभ भावसे संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिये । इस कार्यके साथ ही ऐसा खटका रहना चाहिये कि यह सब है किन्तु मार्ग तो कोई अलग ही है । शुभाशुभ भावसे रहित मार्ग भीतर है — ऐसा खटका तो साथ ही लगा रहना चाहिये ।।२५।।
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भीतर आत्मदेव बिराजमान है उसकी सँभाल कर । अब अंतरमें जा, और तृप्त हो । अनंत गुणस्वरूप आत्माको देख, उसकी सँभाल कर । वीतरागी आनन्दसे भरपूर स्वभावमें क्रीड़ा कर, उस आनन्दरूप सरोवरमें केलि कर – उसमें रमण कर ।।२६।।
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