बहिनश्रीके वचनामृत
अभ्यासके कारण, अस्थिरताके कारण अन्दर स्वरूपमें नहीं रहा जा सकता इसलिये उपयोग बाहर आता है परन्तु रसके बिना — सब निःसार, छिलकोंके समान, रस-कस शून्य हो ऐसे भावसे — बाहर खड़े हैं ।।३२।।
‘जिसे लगी है उसीको लगी है’....परन्तु अधिक खेद नहीं करना । वस्तु परिणमनशील है, कूटस्थ नहीं है; शुभाशुभ परिणाम तो होंगे । उन्हें छोड़ने जायगा तो शून्य अथवा शुष्क हो जायगा । इसलिये एकदम जल्दबाजी नहीं करना । मुमुक्षु जीव उल्लासके कार्योंमें भी लगता है; साथ ही साथ अन्दरसे गहराईमें खटका लगा ही रहता है, संतोष नहीं होता । अभी मुझे जो करना है वह बाकी रह जाता है — ऐसा गहरा खटका निरंतर लगा ही रहता है, इसलिये बाहर कहीं उसे संतोष नहीं होता; और अन्दर ज्ञायकवस्तु हाथ नहीं आती, इसलिये उलझन तो होती है; परन्तु इधर-उधर न जाकर वह उलझनमेंसे मार्ग ढूँढ़ निकालता है ।।३३।।