Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 33.

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अभ्यासके कारण, अस्थिरताके कारण अन्दर
स्वरूपमें नहीं रहा जा सकता इसलिये उपयोग
बाहर आता है परन्तु रसके बिनासब निःसार,
छिलकोंके समान, रस-कस शून्य हो ऐसे
भावसेबाहर खड़े हैं ।।३२।।
‘जिसे लगी है उसीको लगी है’....परन्तु अधिक
खेद नहीं करना । वस्तु परिणमनशील है, कूटस्थ
नहीं है; शुभाशुभ परिणाम तो होंगे । उन्हें छोड़ने
जायगा तो शून्य अथवा शुष्क हो जायगा । इसलिये
एकदम जल्दबाजी नहीं करना । मुमुक्षु जीव
उल्लासके कार्योंमें भी लगता है; साथ ही साथ
अन्दरसे गहराईमें खटका लगा ही रहता है, संतोष
नहीं होता । अभी मुझे जो करना है वह बाकी रह
जाता हैऐसा गहरा खटका निरंतर लगा ही रहता
है, इसलिये बाहर कहीं उसे संतोष नहीं होता; और
अन्दर ज्ञायकवस्तु हाथ नहीं आती, इसलिये उलझन
तो होती है; परन्तु इधर-उधर न जाकर वह
उलझनमेंसे मार्ग ढूँढ़ निकालता है ।।३३।।
बहिनश्रीके वचनामृत
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