तू अपने ध्येयको मत चूकना, अपने प्रयत्नको मत
छोड़ना । आत्मार्थको पोषण मिले वह कार्य करना ।
जिस ध्येय पर आरूढ़ हुआ उसे पूर्ण करना, अवश्य
सिद्धि होगी ।।५१।।
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शरीर शरीरका कार्य करता है, आत्मा आत्माका
कार्य करता है । दोनों भिन्न-भिन्न स्वतंत्र हैं, उनमें
‘यह शरीरादि मेरे’ ऐसा मानकर सुख-दुःख न कर,
ज्ञाता बन जा । देहके लिये अनंत भव व्यतीत हुए;
अब, संत कहते हैं कि अपने आत्माके लिये यह
जीवन अर्पण कर ।।५२।।
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निवृत्तिमय जीवनमें प्रवृत्तिमय जीवन नहीं
सुहाता । शरीरका रोग मिटना हो तो मिटे, परन्तु
उसके लिये प्रवृत्ति नहीं सुहाती । बाहरका कार्य
उपाधि लगता है, रुचता नहीं ।।५३।।
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अनुकूलतामें नहीं समझता तो भाई ! अब प्रति-
बहिनश्रीके वचनामृत
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