Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 58-60.

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आये ऐसे विचार-मंथन करने पर अंतरसे अपना मार्ग
मिल जाता है ।।५७।।
ज्ञानीको द्रष्टि-अपेक्षासे चैतन्य एवं रागकी अत्यन्त
भिन्नता भासती है, यद्यपि वे ज्ञानमें जानते हैं कि राग
चैतन्यकी पर्यायमें होता है ।।५८।।
जिस जीवका ज्ञान अपने स्थूल परिणामोंको
पकड़नेमें काम न करे वह जीव अपने सूक्ष्म
परिणामोंको कहाँसे पकड़ेगा ? और सूक्ष्म परिणामोंको
न पकड़े तो स्वभाव कैसे पकड़में आयेगा ? ज्ञानको
सूक्ष्म-तीक्ष्ण करके स्वभावको पकड़े तो भेदविज्ञान
हो ।।५९।।
अनादिकालसे अज्ञानी जीव संसारमें भटकते-
भटकते, सुखकी लालसामें विषयोंके पीछे दौड़ते-
दौड़ते, अनंत दुःखोंको सहता रहा है । कभी उसे
सच्चा सुख बतलानेवाले मिले तो शंका रखकर अटक
गया, कभी सच्चा सुख बतलानेवालेकी उपेक्षा करके
बहिनश्रीके वचनामृत
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