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अपना सच्चा स्वरूप प्राप्त करनेसे वंचित रहा, कभी पुरुषार्थ किये बिना अटका रहा, कभी पुरुषार्थ किया भी तो थोड़ेसे पुरुषार्थके लिये वहाँसे अटका और गिरा । — इस प्रकार जीव अपना स्वरूप प्राप्त करनेमें अनंत बार अटका । पुण्योदयसे यह देह प्राप्त हुआ, यह दशा प्राप्त हुई, ऐसे सत्पुरुषका योग मिला; अब यदि पुरुषार्थ नहीं करेगा तो किस भवमें करेगा ? हे जीव ! पुरुषार्थ कर; ऐसा सुयोग एवं सच्चा आत्म- स्वरूप बतलानेवाले सत्पुरुष बार-बार नहीं मिलेंगे ।।६०।।
जिसे सचमुच ताप लगा हो, जो संसारसे ऊब गया हो उसकी यह बात है । विभावसे ऊब जाये और संसारका त्रास लगे तो मार्ग मिले बिना नहीं रहता । कारण दे तो कार्य प्रगट होता ही है । जिसे जिसकी रुचि — रस हो वहाँ उसका समय कट जाता है; ‘रुचि अनुयायी वीर्य’ । निरंतर ज्ञायकके मंथनमें रहे, दिन-रात उसके पीछे पड़े, तो वस्तु प्राप्त हुए बिना न रहे ।।६१।।
जीव ज्ञायकके लक्षसे श्रवण करे, चिंतवन करे,