बहिनश्रीके वचनामृत
मंथन करे उसे — भले कदाचित् सम्यग्दर्शन न हो तथापि — सम्यक्त्वसन्मुखता होती है । अन्दर द्रढ़ संस्कार डाले, उपयोग एक विषयमें न टिके तो अन्यमें बदले, उपयोग सूक्ष्मसे सूक्ष्म करे, उपयोगमें सूक्ष्मता करते करते, चैतन्यतत्त्वको ग्रहण करते हुए आगे बढ़े, वह जीव क्रमसे सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है ।।६२।।
जैसा बीज बोये वैसा वृक्ष होता है; आमका बीज (गुठली) बोये तो आमका वृक्ष होगा और अकौआ (आक)का बीज बोयेगा तो अकौएका वृक्ष उगेगा । जैसा कारण देंगे वैसा कार्य होता है । सच्चा पुरुषार्थ करें तो सच्चा फल मिलता ही है ।।६३।।
अंतरमें, चैतन्यतत्त्व नमस्कार करने योग्य है; वही मंगल है, वही सर्व पदार्थोंमें उत्तम है, भव्य जीवोंको वह आत्मतत्त्व ही एक शरण है । बाह्यमें, पंच परमेष्ठी — अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा साधु — नमस्कार करने योग्य हैं क्योंकि उन्होंने