आत्माकी साधना की है; वे मंगलरूप हैं, वे लोकमें
उत्तम हैं; वे भव्यजीवोंके शरण हैं ।।६४।।
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देव-गुरुकी वाणी और देव-शास्त्र-गुरुकी महिमा
चैतन्यदेवकी महिमा जागृत करनेमें, उसके गहरे
संस्कार द्रढ़ करनेमें तथा स्वरूपप्राप्ति करनेमें निमित्त
हैं ।।६५।।
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बाह्यमें सब कुछ हो उसमें — भक्ति -उल्लासके कार्य
हों उनमें भी — आत्माका आनन्द नहीं है । जो
तलमेंसे आये वही आनन्द सच्चा है ।।६६।।
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प्रत्येक प्रसंगमें शान्ति, शान्ति और शान्ति ही
लाभदायक है ।।६७।।
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पूज्य गुरुदेवकी वाणी मिले वह एक अनुपम
सौभाग्य है । मार्ग बतलानेवाले गुरु मिले और उनकी
वाणी सुननेको मिली वह मुमुक्षुओंका परम सौभाग्य
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बहिनश्रीके वचनामृत