आनंदादि अनेक नवीनताएँ प्रगट होती हैं ।।७०।।
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धन्य वह निर्ग्रन्थ मुनिदशा ! मुनिदशा अर्थात्
केवलज्ञानकी तलहटी । मुनिको अंतरमें चैतन्यके
अनंत गुण-पर्यायोंका परिग्रह होता है; विभाव बहुत
छूट गया होता है । बाह्यमें श्रामण्यपर्यायके सहकारी
कारणभूतपनेसे देहमात्र परिग्रह होता है । प्रतिबंध-
रहित सहज दशा होती है; शिष्योंको बोध देनेका
अथवा ऐसा कोई भी प्रतिबंध नहीं होता । स्वरूपमें
लीनता वृद्धिंगत होती है ।।७१।।
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अखण्ड द्रव्यको ग्रहण करके प्रमत्त-अप्रमत्त
स्थितिमें झूले वह मुनिदशा । मुनिराज स्वरूपमें
निरंतर जागृत हैं, मुनिराज जहाँ जागते हैं वहाँ जगत
सोता है, जगत जहाँ जागता है वहाँ मुनिराज सोते
हैं । ‘मुनिराज जो निश्चयनयाश्रित, मोक्षकी प्राप्ति
करें’ ।।७२।।
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द्रव्य तो निवृत्त ही है । उसका द्रढ़तासे अवलम्बन
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बहिनश्रीके वचनामृत