बहिनश्रीके वचनामृत
लेकर भविष्यके विभावसे भी निवृत्त होओ । मुक्ति तो जिनके हाथमें आ गई है ऐसे मुनियोंको भेदज्ञानकी तीक्ष्णतासे प्रत्याख्यान होता है ।।७३।।
यदि तेरी गति विभावमें जाती है तो उसे शीघ्रतासे चैतन्यमें लगा । स्वभावमें आनेसे सुख और गुणोंकी वृद्धि होगी; विभावमें जानेसे दुःख और गुणोंकी हानि होगी । इसलिये शीघ्रतासे स्वरूपमें गति कर ।।७४।।
जिन्होंने चैतन्यधामको पहिचान लिया है वे स्वरूपमें ऐसे सो गये कि बाहर आना अच्छा ही नहीं लगता । जैसे अपने महलमें सुखसे रहनेवाले चक्रवर्ती राजाको बाहर निकलना सुहाता ही नहीं, वैसे ही जो चैतन्यमहलमें विराज गये हैं उन्हें बाहर आना कठिन लगता है, भाररूप लगता है; आँखसे रेत उठवाने जैसा दुष्कर लगता है । जो स्वरूपमें ही आसक्त हुआ उसे बाहरकी आसक्ति टूट गई है ।।७५।।
तस्वीर खींची जाती है वहाँ जैसे चेहरेके भाव होते