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हैं तदनुसार स्वयमेव कागज पर चित्रित हो जाते हैं, कोई चित्रण करने नहीं जाता । उसी प्रकार कर्मके उदयरूप चित्रकारी सामने आये तब समझना कि मैंने जैसे भाव किये थे वैसा ही यह चित्रण हुआ है । यद्यपि आत्मा कर्ममें प्रवेश करके कुछ करता नहीं है, तथापि भावके अनुरूप ही चित्रण स्वयं हो जाता है । अब दर्शनरूप, ज्ञानरूप, चारित्ररूप परिणमन कर तो संवर-निर्जरा होगी । आत्माका मूल स्वभाव दर्शन- ज्ञान-चारित्ररूप है, उसका अवलम्बन करने पर द्रव्यमें जो (शक्ति रूपसे) विद्यमान है वह (व्यक्ति रूपसे) प्रगट होगा ।।७६।।
अनंत कालसे जीवको स्वसे एकत्व और परसे विभक्त पनेकी बात रुची ही नहीं । जीव बाहरसे भूसी कूटता रहता है परन्तु अंदरका जो कस — आत्मा — है उसे नहीं खोजता । राग-द्वेषकी भूसी कूटनेसे क्या लाभ है? उसमेंसे दाना नहीं निकलेगा । परसे एकत्व- बुद्धि तोड़कर भिन्न तत्त्वको — अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष एवं असंयुक्त आत्माको — जाने, तो कार्य हो ।।७७।।