बहिनश्रीके वचनामृत
स्वरूपकी लीला जात्यंतर है । मुनिराज चैतन्यके बागमें क्रीड़ा करते-करते कर्मके फलका नाश करते हैं । बाह्यमें आसक्ति थी उसे तोड़कर स्वरूपमें मंथर — स्वरूपमें लीन — हो गये हैं । स्वरूप ही उनका आसन, स्वरूप ही निद्रा, स्वरूप ही आहार है; वे स्वरूपमें ही लीला, स्वरूपमें ही विचरण करते हैं । सम्पूर्ण श्रामण्य प्रगट करके वे लीलामात्रमें श्रेणी माँडकर केवलज्ञान प्रगट करते हैं ।।७८।।
शुद्धस्वरूप आत्मामें मानों विकार अंदर प्रविष्ट हो गये हों ऐसा दिखायी देता है, परन्तु भेदज्ञान प्रगट करने पर वे ज्ञानरूपी चैतन्य-दर्पणमें प्रतिबिम्बरूप हैं । ज्ञान-वैराग्यकी अचिंत्य शक्ति से पुरुषार्थकी धारा प्रगट कर । यथार्थ द्रष्टि (द्रव्य पर द्रष्टि) करके ऊपर आजा । चैतन्यद्रव्य निर्मल है । अनेक प्रकारके कर्मके उदय, सत्ता, अनुभाग तथा कर्मनिमित्तक विकल्प आदि तुझसे अत्यंत भिन्न हैं ।।७९।।
विधि और निषेधके विकल्पजालको छोड़ । मैं