बँधा हूँ, मैं बँधा नहीं हूँ — वह सब छोड़कर अंदर
जा, अंदर जा; निर्विकल्प हो, निर्विकल्प हो ।।८०।।
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जैसे स्वभावसे निर्मल स्फ टिकमें लाल-काले
फू लके संयोगसे रंग दिखते हैं तथापि वास्तवमें
स्फ टिक रंगा नहीं गया है, वैसे ही स्वभावसे निर्मल
आत्मामें क्रोध-मानादि दिखायी दें तथापि वास्तवमें
आत्मद्रव्य उनसे भिन्न है । वस्तुस्वभावमें मलिनता
नहीं है । परमाणु पलटकर वर्ण-गंध-रस-स्पर्शसे रहित
नहीं होता वैसे ही वस्तुस्वभाव नहीं बदलता । यह
तो परसे एकत्व तोड़नेकी बात है । अंतरमें वास्तविक
प्रवेश कर तो (परसे) पृथक्ता हो ।।८१।।
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‘मैं तो दर्पणकी भाँति अत्यंत स्वच्छ हूँ; विकल्पके
जालसे आत्मा मलिन नहीं होता; मैं तो विकल्पसे
भिन्न, निर्विकल्प आनन्दघन हूँ; ज्योंका त्यों पवित्र
हूँ ।’ — इस प्रकार अपने स्वभावकी जातिको
पहिचान । तू विकल्पसे मलिन होकर — मलिनता
मानकर भ्रमणामें ठगा गया है; दर्पणकी भाँति जातिसे
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बहिनश्रीके वचनामृत