Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 81-82.

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बहिनश्रीके वचनामृत

बँधा हूँ, मैं बँधा नहीं हूँवह सब छोड़कर अंदर जा, अंदर जा; निर्विकल्प हो, निर्विकल्प हो ।।८०।।

जैसे स्वभावसे निर्मल स्फ टिकमें लाल-काले फू लके संयोगसे रंग दिखते हैं तथापि वास्तवमें स्फ टिक रंगा नहीं गया है, वैसे ही स्वभावसे निर्मल आत्मामें क्रोध-मानादि दिखायी दें तथापि वास्तवमें आत्मद्रव्य उनसे भिन्न है । वस्तुस्वभावमें मलिनता नहीं है । परमाणु पलटकर वर्ण-गंध-रस-स्पर्शसे रहित नहीं होता वैसे ही वस्तुस्वभाव नहीं बदलता । यह तो परसे एकत्व तोड़नेकी बात है । अंतरमें वास्तविक प्रवेश कर तो (परसे) पृथक्ता हो ।।८१।।

‘मैं तो दर्पणकी भाँति अत्यंत स्वच्छ हूँ; विकल्पके जालसे आत्मा मलिन नहीं होता; मैं तो विकल्पसे भिन्न, निर्विकल्प आनन्दघन हूँ; ज्योंका त्यों पवित्र हूँ ।’इस प्रकार अपने स्वभावकी जातिको पहिचान । तू विकल्पसे मलिन होकरमलिनता मानकर भ्रमणामें ठगा गया है; दर्पणकी भाँति जातिसे