साधन होते हैं । बाकी तो, जो जिसमें हो उसमेंसे
वह आता है, जो जिसमें न हो वह उसमेंसे नहीं
आता । अखण्ड द्रव्यके आश्रयसे सब प्रगट होता
है । देव-गुरु मार्ग बतलाते हैं, परन्तु सम्यग्दर्शन कोई
दे नहीं देता ।।८५ ।।
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दर्पणमें जब प्रतिबिम्ब पड़े उसी काल उसकी
निर्मलता होती है, वैसे ही विभावपरिणामके समय ही
तुझमें निर्मलता भरी है । तेरी द्रष्टि चैतन्यकी
निर्मलताको न देखकर विभावमें तन्मय हो जाती है,
वह तन्मयता छोड़ दे ।।८६।।
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‘मुझे परकी चिन्ताका क्या प्रयोजन ? मेरा
आत्मा सदैव अकेला है’ ऐसा ज्ञानी जानते हैं ।
भूमिकानुसार शुभ भाव आयें परन्तु अंतरमें
एकाकीपनेकी प्रतीतिरूप परिणति निरंतर बनी रहती
है ।।८७।।
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मैं तो लेप रहित चैतन्यदेव हूँ । चैतन्यको जन्म
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बहिनश्रीके वचनामृत