नहीं है, मरण नहीं है । चैतन्य तो सदा चैतन्य ही
है । नवीन तत्त्व प्रगट हो तो जन्म कहलाये । चैतन्य
तो द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावसे चाहे जैसे उदयमें सदा
निर्लेप — अलिप्त ही है । फि र चिन्ता काहे की ? मूल
तत्त्वमें तो कुछ प्रविष्ट हो ही नहीं सकता ।।८८।।
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मुनिराजको एकदम स्वरूपरमणता जागृत है ।
स्वरूप कैसा है ? ज्ञान, आनन्दादि गुणोंसे निर्मित है ।
पर्यायमें समताभाव प्रगट है । शत्रु-मित्रके विकल्प
रहित है; निर्मानता है; ‘देह जाय पर माया होय न
रोममें’; सोना हो या तिनका — दोनों समान हैं । चाहे
जैसे संयोग हों — अनुकूलतामें आकर्षित नहीं होते,
प्रतिकूलतामें खेद नहीं करते । ज्यों-ज्यों आगे बढ़े
त्यों-त्यों समरसभाव विशेष प्रगट होता जाता
है ।।८९।।
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संसारकी अनेक अभिलाषारूप क्षुधासे दुःखित
मुसाफि र ! तू विषयोंके लिये क्यों तरसता है ? वहाँ
तेरी भूख शांत नहीं होगी । अंतरमें अमृतफलोंका
बहिनश्रीके वचनामृत
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