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बहिनश्रीके वचनामृत
चैतन्यवृक्ष लगा है उसे देख तो अनेक प्रकारके मधुर फल एवं रस तुझे प्राप्त होंगे, तू तृप्त-तृप्त हो जायगा ।।९०।।
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अहा ! आत्मा अलौकिक चैतन्यचन्द्र है, जिसका अवलोकन करनेसे मुनियोंको वैराग्य उछल पड़ता है । मुनि शीतल-शीतल चैतन्यचन्द्रको निहारते हुए अघाते ही नहीं, थकते ही नहीं ।।९१।।
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रोगमूर्ति शरीरके रोग पौद्गलिक हैं, आत्मासे सर्वथा भिन्न हैं । संसाररूपी रोग आत्माकी पर्यायमें हैं; ‘मैं सहज ज्ञायकमूर्ति हूँ’ ऐसी चैतन्यभावना, यही मनन, यही मंथन, ऐसी ही स्थिर परिणति करनेसे संसाररोगका नाश होता है ।।९२।।
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ज्ञानीको द्रष्टि द्रव्यसामान्य पर ही स्थिर रहती है, भेदज्ञानकी धारा सतत बहती है ।।९३।।
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