ध्रुवतत्त्वमें एकाग्रतासे ही निर्मल पर्याय प्रगट
होती है, विभावका अभाव होता है ।।९४।।
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मुनि असंगरूपसे आत्माकी साधना करते हैं,
स्वरूपगुप्त हो गये हैं । प्रचुर स्वसंवेदन ही मुनिका
भावलिंग है ।।९५।।
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आत्मा ही एक सार है, अन्य सब निःसार है ।
सब चिन्ता छोड़कर एक आत्माकी ही चिन्ता कर ।
कुछ भी करके चैतन्यस्वरूप आत्माको पकड़; तभी तू
संसाररूपी मगरके मुँहमेंसे छूट सकेगा ।।९६।।
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परपदार्थको जाननेसे ज्ञानमें उपाधि नहीं आ
जाती । तीन काल, तीन लोकको जाननेसे सर्वज्ञता
— ज्ञानकी परिपूर्णता सिद्ध होती है । वीतराग हो
जाय उसे ज्ञानस्वभावकी परिपूर्णता प्रगट होती
है ।।९७।।
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बहिनश्रीके वचनामृत
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