द्रष्टि एवं ज्ञान यथार्थ कर । तू अपनेको भूल
गया है । यदि बतलानेवाले (गुरु) मिलें तो तुझे
उनकी दरकार नहीं है । जीवको रुचि हो तो
गुरुवचनोंका विचार करे, स्वीकार करे और चैतन्यको
पहिचाने ।।९८।।
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यह तो पंखीका मेला जैसा है । इकट्ठे हुए हैं वे
सब अलग हो जायँगे । आत्मा एक शाश्वत है, अन्य
सब अध्रुव है; बिखर जायगा । मनुष्य-जीवनमें
आत्मकल्याण कर लेना योग्य है ।।९९।।
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‘मैं अनादि-अनंत मुक्त हूँ’ — इस प्रकार शुद्ध
आत्मद्रव्य पर द्रष्टि देनेसे शुद्ध पर्याय प्रगट होती है ।
‘द्रव्य तो मुक्त है, मुक्ति की पर्यायको आना हो तो
आये’ इस प्रकार द्रव्यके प्रति आलम्बन और पर्यायके
प्रति उपेक्षावृत्ति होने पर स्वाभाविक शुद्ध पर्याय प्रगट
होती ही है ।।१००।।
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३८ ]
बहिनश्रीके वचनामृत