सम्यग्द्रष्टिको ऐसा निःशंक गुण होता है कि चौदह
ब्रह्माण्ड उलट जायँ तथापि अनुभवमें शंका नहीं
होती ।।१०१।।
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आत्मा सर्वोत्कृष्ट है, आश्चर्यकारी है । जगतमें
उससे ऊँची वस्तु नहीं है । उसे कोई ले जा नहीं
सकता । जो छूट जाती है वह तो तुच्छ वस्तु है; उसे
छोड़ते हुए तुझे डर क्यों लगता है ? ।।१०२।।
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यदि वर्तमानमें ही चैतन्यमें सम्पूर्णरूपसे स्थिर
हुआ जा सकता हो तो दूसरा कुछ नहीं चाहिये ऐसी
भावना सम्यग्द्रष्टिके होती है ।।१०३।।
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‘मैं शुद्ध हूँ’ ऐसा स्वीकार करनेसे पर्यायकी
रचना शुद्ध ही होती है । जैसी द्रष्टि वैसी
सृष्टि ।।१०४।।
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बहिनश्रीके वचनामृत
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