Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 105-107.

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आत्माने तो परमार्थसे त्रिकाल एक ज्ञायकपनेका
ही वेश धारण किया हुआ है । ज्ञायक तत्त्वको
परमार्थसे कोई पर्यायवेश नहीं है, कोई पर्याय-
अपेक्षा नहीं है । आत्मा ‘मुनि है’ या ‘केवलज्ञानी
है’ या ‘सिद्ध है’ ऐसी एक भी पर्याय-अपेक्षा
वास्तवमें ज्ञायक पदार्थको नहीं है । ज्ञायक तो
ज्ञायक ही है ।।१०५।।
चैतन्यस्वरूप आत्मा तेरा अपना है इसलिये उसे
प्राप्त करना सुगम है । परपदार्थ परका है, अपना
नहीं होता, अपना बनानेमें मात्र आकुलता होती
है ।।१०६।।
शाश्वत शुद्धिधाम ऐसा जो बलवान आत्मद्रव्य,
उसकी द्रष्टि प्रगट हुई तो शुद्ध पर्याय प्रगट होती ही
है । विकल्पके भेदसे शुद्ध पर्याय प्रगट नहीं होती ।
एकको ग्रहण किया उसमें सब आ जाता है । द्रष्टिके
साथ रहा हुआ सम्यग्ज्ञान विवेक करता है ।।१०७।।
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बहिनश्रीके वचनामृत