जगतमें ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो चैतन्यसे
बढ़कर हो । तू इस चैतन्यमें — आत्मामें स्थिर हो,
निवास कर । आत्मा दिव्य ज्ञानसे, अनंत गुणोंसे
समृद्ध है । अहा ! चैतन्यकी ऋद्धि अगाध
है ।।१०८।।
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आत्मारूपी परमपवित्र तीर्थ है उसमें स्नान
कर । आत्मा पवित्रतासे भरपूर है, उसके अंदर
उपयोग लगा । आत्माके गुणोंमें सराबोर हो जा ।
आत्मतीर्थमें ऐसा स्नान कर कि पर्याय शुद्ध हो
जाय और मलिनता दूर हो ।।१०९।।
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परम पुरुष तेरे निकट होने पर भी तूने देखा नहीं
है । द्रष्टि बाहरकी बाहर ही है ।।११०।।
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परमात्मा सर्वोत्कृष्ट कहलाता है । तू स्वयं ही
परमात्मा है ।।१११।।
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बहिनश्रीके वचनामृत
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