Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 108-111.

< Previous Page   Next Page >


Page 41 of 212
PDF/HTML Page 56 of 227

 

बहिनश्रीके वचनामृत

[ ४१

जगतमें ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो चैतन्यसे बढ़कर हो । तू इस चैतन्यमेंआत्मामें स्थिर हो, निवास कर । आत्मा दिव्य ज्ञानसे, अनंत गुणोंसे समृद्ध है । अहा ! चैतन्यकी ऋद्धि अगाध है ।।१०८।।

आत्मारूपी परमपवित्र तीर्थ है उसमें स्नान कर । आत्मा पवित्रतासे भरपूर है, उसके अंदर उपयोग लगा । आत्माके गुणोंमें सराबोर हो जा । आत्मतीर्थमें ऐसा स्नान कर कि पर्याय शुद्ध हो जाय और मलिनता दूर हो ।।१०९।।

परम पुरुष तेरे निकट होने पर भी तूने देखा नहीं है । द्रष्टि बाहरकी बाहर ही है ।।११०।।

परमात्मा सर्वोत्कृष्ट कहलाता है । तू स्वयं ही परमात्मा है ।।१११।।