सहज तत्त्व अखण्डित है । चाहे जितना काल
गया, चाहे जितने विभाव हुए, तथापि परम
पारिणामिक भाव ज्योंका त्यों अखण्ड रहा है; कोई
गुण अंशतः भी खण्डित नहीं हुआ है ।।११२।।
✽
मुनि एक-एक अन्तर्मुहूर्तमें स्वभावमें डुबकी
लगाते हैं । अंतरमें निवासके लिये महल मिल गया
है, उसके बाहर आना अच्छा नहीं लगता । मुनि
किसी प्रकारका बोझ नहीं लेते । अन्दर जायें तो
अनुभूति और बाहर आयें तो तत्त्वचिंतन आदि ।
साधकदशा इतनी बढ़ गई है कि द्रव्यसे तो कृतकृत्य
हैं ही परन्तु पर्यायमें भी अत्यन्त कृतकृत्य हो गये
हैं ।।११३।।
✽
जिसे भगवानका प्रेम हो वह भगवानको देखता
रहता है, उसी प्रकार चैतन्यदेवका प्रेमी चैतन्य चैतन्य
ही करता रहता है ।।११४।।
✽
४२ ]
बहिनश्रीके वचनामृत