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बहिनश्रीके वचनामृत
सहज तत्त्व अखण्डित है । चाहे जितना काल गया, चाहे जितने विभाव हुए, तथापि परम पारिणामिक भाव ज्योंका त्यों अखण्ड रहा है; कोई गुण अंशतः भी खण्डित नहीं हुआ है ।।११२।।
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मुनि एक-एक अन्तर्मुहूर्तमें स्वभावमें डुबकी लगाते हैं । अंतरमें निवासके लिये महल मिल गया है, उसके बाहर आना अच्छा नहीं लगता । मुनि किसी प्रकारका बोझ नहीं लेते । अन्दर जायें तो अनुभूति और बाहर आयें तो तत्त्वचिंतन आदि । साधकदशा इतनी बढ़ गई है कि द्रव्यसे तो कृतकृत्य हैं ही परन्तु पर्यायमें भी अत्यन्त कृतकृत्य हो गये हैं ।।११३।।
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जिसे भगवानका प्रेम हो वह भगवानको देखता रहता है, उसी प्रकार चैतन्यदेवका प्रेमी चैतन्य चैतन्य ही करता रहता है ।।११४।।
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