बहिनश्रीके वचनामृत
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गुणभेद पर द्रष्टि करनेसे विकल्प ही उत्पन्न होता है, निर्विकल्पता — समरसता नहीं होती । एक चैतन्यको सामान्यरूपसे ग्रहण कर; उसमें मुक्ति का मार्ग प्रगट होगा । भिन्न-भिन्न ग्रहण करनेसे अशान्ति उत्पन्न होगी ।।११५।।
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चाहे जैसे संयोगमें आत्मा अपनी शान्ति प्रगट कर सकता है ।।११६।।
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निरालम्ब चलना वह वस्तुका स्वभाव है । तू किसीके आश्रय बिना चैतन्यमें चला जा । आत्मा सदा अकेला ही है, आप स्वयंभू है । मुनियोंके मनकी गति निरालम्ब है । सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्रकी निरालम्बी चाल प्रगट हुई उसे कोई रोकनेवाला नहीं है ।।११७।।
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जैसा कारण दे वैसा कार्य होता है । भव्य जीवको निष्कलंक परमात्माका ध्यान करनेसे