बहिनश्रीके वचनामृत
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आत्मा तो ज्ञाता है । आत्माकी ज्ञातृत्वधाराको कोई रोक नहीं सकता । भले रोग आये या उपसर्ग आये, आत्मा तो निरोग और निरुपसर्ग है । उपसर्ग आया तो पांडवोंने अंतरमें लीनता की, तीनने तो केवलज्ञान प्रगट किया । अटके तो अपनेसे अटकता है, कोई अटकाता नहीं है ।।१२८।।
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भगवानकी आज्ञासे बाहर पाँव रखेगा तो डूब जायगा । अनेकान्तका ज्ञान कर तो तेरी साधना यथार्थ होगी ।।१२९।।
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निजचैतन्यदेव स्वयं चक्रवर्ती है, उसमेंसे अनंत रत्नोंकी प्राप्ति होगी । अनंत गुणोंकी जो ऋद्धि प्रगट होती है वह अपनेमें है ।।१३०।।
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शुद्धोपयोगसे बाहर मत आना; शुद्धोपयोग ही संसारसे बचनेका मार्ग है । शुद्धोपयोगमें न रह सके तो प्रतीति तो यथार्थ रखना ही । यदि